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जिनभक्त मेंढ़क की कहानी

राजगृही नगरी में एक सेठ रहता था । उसका नाम नागदत्त था और उसकी सेठानी का नाम भवदत्ता था । सेठ नागदत्त के स्वभाव में मायाचारी अधिक था । वह कहता कुछ था करता कुछ था और मन में कुछ और ही विचारा करता था । सेठ जी ने अपनी आयु पूर्ण होने पर शरीर छोड़ा और मर कर अपने ही आंॅगन की बावड़ी में मेंढ़क हुआ । ठीक है कि मायाचारी मनुष्य को प्शु होना पड़ता है । इसलिये श्री गुरु ने शिक्षा दी है कि - मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसों करिये । जब मेंढ़क ने अपने पूर्व भव की स्त्री भवदत्ता को बावड़ी पर देखा तो उसे पूर्व भव की याद आ गई । वह मेंढ़क उछल कर भवदत्ता के कपड़ों पर गिरा । भवदत्ता ने कपड़े फटकार कर मेंढ़क को हटा दिया । वह फिर भी भवदत्ता के ऊपर कूद आया और भवदत्ता ने फिर हटा दिया । ऐसा कई बार होने से भवदत्ता ने सोचा कि मेंढ़क के जीव और मुझसे पूर्व जन्म का कुछ सम्बंध होगा, इसी कारण वह मुझसे प्रेम प्रगट करता है ।

भाग्य से भवदत्ता सेठानी को सुव्रतमुनि के दर्शन हुये । सेठानी ने मुनिराज को नमस्कार कर अपने साथ मेंढ़क के सम्बंध के बारे मंे पूंछा । उन अवधिज्ञानी मुनिराज ने उत्तर दिया कि यह मेंढ़क तेरे ही पति का जीव है । जब भवदत्ता को यह मालूम हुआ कि यह मेंढ़क मेरे पति का जीव है ,तब वह उसको बड़े आराम से रखने लगी और मेंढ़क भी आनन्द से रहने लगा । एक दिन राजगृही नगरी में विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण आया । वहां राजा रेणिक और बस्ती की सभी स्त्रियां और पुरुष अष्टद्रव्य आदि पूजा की सामग्री लेकर भगवान की वन्दना को गये और भक्तिभाव सहित पूजन, वन्दना करके अपने योग्य स्थान पर उपदेश सुनने बैठ गये । भवदत्ता भी भगवान की पूजा के लिये आई ।

मेढ़क ने भी आकाश में देवों को जाते हुये देखा । जिससे उसे पूर्व भव की याद आ गई और भगवान की पूजा करने की इच्छा हुई । वह बावड़ी में से कमल की कली तोड़कर उसे मुॅह में दबा कर भगवान की पूजा को चला । मेंढ़क ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था त्यों-त्यों उसकी रुचि जिन पूजा में बढ़ती ही जाती थी ।

उस दिन भीड़ बहुत थी । लाखों देव आकाश मार्ग से आ रहे थे और स्त्री-पुरुष पशु आदि सड़कों पर से जा रहे थे । उत्साह से प्रेरित मेंढ़क भी बड़े मौज से चला जा रहा था । इतने में एक हाथी का पांव मेंढ़क के ऊपर पड़ गया और उसका जीवन समाप्त हो गया ।

मेढ़क का भाव जिन पूजा में उत्कंठित था, इससे पूजा में प्रेम से जीवों की जो गति होती है, वही गति मेंढ़क की हुई । वह मर कर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का धारक देव हुआ । वहां थोड़ी ही देर में युवा हो गया । उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म की बात विचारी और तुरन्त ही विमान में बैठकर भगवान के समवसरण में गया । भगवान की पूजा में उसका बहुत प्रेम बढ़ रहा था इसलिये स्वर्ग में एक पल भर भी नहीं ठहरा तुरन्त समवसरण में चला गया ।

उसने मेंढ़क की पर्याय से ज्ञान पाया था इसलिये उसके मुकुट में मेंढ़क का आकार था । जब वह देव भगवान की पूजन वन्दना करके देवों की सभा में गया तो राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से पूंछा कि हे प्रभो - मैनें देवों के मुकुट में मेंढ़क का आकार कभी नहीं देखा । इस देव के मुकुट में मेंढ़क का चिन्ह क्यों है ?

राजा श्रेणिक का यह प्रश्न सुनकर गौतमस्वामी ने नागदत्त के भव से लगाकर सब हाल सुनाया । उसे सुनकर राजा श्रेणिक और सब लोगों को जिनपूजा में बड़ी रुचि हुई और सबका सन्देह दूर हो गया ।

सारांश - देखो, मेंढ़क ने कमल की कली से पूजा करने की केवल इच्छा ही की थी । उसका ऐसा उत्तम फल हुआ । फिर जो मनुष्य अष्टद्रव्य से भक्तिभाव सहित पूजा करेगें वे अपनी आत्मा की भलाई क्यों नहीं करेगें ? ऐसा जानकर जिननेन्द्र भगवान की पूजा प्रतिदिन कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाना चाहिये ।


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